भारत ही नहीं विश्व में सभी मत - संप्रदायों में मनाएं जाने वाले पर्वों में सबसे विलक्षण और महान दर्शन का प्रतिनिधि पर्व है - होली। अहंकार शून्यता और सामाजिक समरसता का दिव्य महोत्सव है होली।
होली वैश्विक सनातन संस्कृति का वह प्रतिनिधि पर्व है जब सतयुग में मानव सभ्यता का शैशव काल था और पशुवत जीवन और उच्च मानवीय मूल्यों का संघर्ष हुआ। जब मानव पशुवत जीवन से बाहर निकलकर उच्च मानवीय परंपराओं को जन्म दे रहा था, उस प्राचीन कालखंड में दानवीय समाज व्यवस्था के विरुद्ध दक्षिण भारतवर्ष के राजा हिरण्यकश्यप के नन्हे राजकुमार प्रह्लाद द्वारा सनातन वैदिक मान्यताओं की स्थापना के लिए विद्रोह का शंखनाद किया । इस समय उसके संकल्प से एक ऐसी शक्ति का उदय हुआ, जिसका वाह्य दर्शन भले ही अर्ध सिंह व अर्ध मानव (नृसिंह) का था, किंतु उसने आसुरी समाज व्यवस्था के प्रतिनिधि शासक हिरण्यकश्यप का वध कर एक कुलीन सनातन परंपरा की स्थापना की।
यह संघर्ष आज भी जारी है, ना समाज व्यवस्था में दानवीय जीवन व्यवस्था के अनुयायी कम हुए और ना सनातन वैदिक परंपराओं के अनुगामियों ने अपना पथ छोड़ा। आज आसुरी सभ्यता के विरुद्ध मानव सभ्यता का संघर्ष चरम पर है।
एक पुरानी कहावत है - ' जो होली सो होली, आग लगाओ धूल डालो ' इसका अर्थ है कि विगत में जो हो गया उसे विसार कर नवीन संबंधों का सृजन करो । यही तो होली का महत्व है पहले होली होती है फिर होली में आगे लगती है फिर हम धूल मनाते हैं, एक दूसरे के गले मिलते हैं, उनसे भी जिनसे वर्ष भर राम राम भी नहीं करते।
होली परस्पर छेड़छाड का उत्सव भी है, आयु संबंधों से परे जाकर , पुराने कपड़े चप्पल पहनकर इठला कर चलना, क्या बात है होली की। याद है अपना बचपन जब मछ्ली के कांटे से टोपी अंगौछा खेचते थे, फिर पैसे मांगते थे, आलू के ठप्पे बनाकर छापते थे।
अब जौ की बाली के स्थान पर गेहूं की बालियां प्रयोग होती है, पहले यह बिकती नहीं थी, अब बिक रही है। गूलरी घरों में नहीं बन रही, बाजार से खरीद रहे हैं क्यों ? क्योंकि अब गलियों में गौ माता विचरण नहीं करती, वो गौ-शालाओं में पहुंच गई हैं।
अब नव धनाड्यों में नई बीमारी लग रही है, होलीपर्व समाज के बीच न मनाकर एक वर्ग विशेष में ' उत्सव' आयोजित करना, किंतु समाज के साथ समरस नहीं होना । समाज में एक वर्ग है जो होली को या तो घूमने निकल जाते हैं या अपनी कोठी बंद कर लॉन में दारू की बोतल काजू लगा कर होली मनाते हैं, समाज के इतर लोगों से मिलना उन्हें अपमानजनक लगता है।
इस वर्ग में नौकरशाह, अधिवक्ता, चिकित्सक, अभियंता, बैंक अधिकारी, विश्वविद्यालय के प्रवक्ता, बड़े उद्यमी - व्यापारी आते हैं और बड़ी बेशर्मी से कहते है हमको पसंद नहीं है, होली खेलना, कैसे पसंद होगा ? तुम अहंकारी हो, तामस वृत्ति हो और लिख कर रख लो कितने भी तीर्थ कर लेना पूजा कर लेना गोविंद नहीं मिलेगा। गोविन्द प्रह्लाद को मिलता है....खंबा तोड़ कर बाहर आ जाता है वो। मेरे गोविन्द को प्रेम चाहिए, ढोंग और अहंकार नहीं|
होली उस कालखंड का पर्व है, जब मूर्तिंपजा नहीं थी किंतु वैदिक यज्ञ परंपरा अवश्य थी। होली के नाम पर परंपरा निभा रहे हैं हम लोग, होली उत्सव का मूल दर्शन नहीं बचा रहे। ॐ शम।
(✍️लेखक:अशोक चौधरी,अध्यक्ष,आहुति अलीगढ़)