जनता से वित्तपोषित, UPI, PhonePe, और PayTM: 9219129243

पढ़िए, अशोक चौधरी की कलम से पते की बात: लापता लोक का गडबड़ गणतंत्र

0


   26 जनवरी 1950 को भारत के रूप में एक देश की पुनर्घोषणा हुई, बहुत सारे लोग नहीं जानते होंगे कि 26 जनवरी 1950 से पूर्व भारत ब्रिटिश सरकार के अधीन शासित देश था। 15 अगस्त 1947 को भारत में सत्ता का हस्तांतरण हुआ था, स्वतंत्रता प्राप्त नहीं हुई थी।आप को यह जानकर भी हैरानी होगी कि 15 अगस्त 1947 के बाद देश में कुछ भी नहीं बदला, सिवाय इसके कि तत्कालीन प्रधानमन्त्री श्री जवाहरलाल नेहरू ने यूनियन जैक के साथ तिरंगा भी फहरा दिया। श्री जवाहरलाल नेहरू अन्तरिम सरकार के प्रधानमन्त्री के रूप में 2 सितंबर 1946 को ही ब्रिटेन की महाराजा जार्ज VI को साक्षी मानकर शपथ ले चुके थे और 1947 में शासन व्यवस्था भी वही अपनाई गयी, जो तत्कालीन ब्रिटेन में चलती थी। 


     आप विचार करें कि क्या बदला 1947 के बाद भारत की प्रशासनिक सेवा के अधिकारी बदलें, न्यायिक व्यवस्था के अधिकारी बदलें, कोई ऐसा विधिक प्रावधान जो ब्रिटिश राज्य में चलता था, वह बदला, नहीं ना ! आपको य़ह भी ज्ञात होना चाहिए कि 60 के दशक तक भारत के वरिष्ठ प्रशासनिक अधिकारी ब्रिटिश इंटेलिजेंस के ऑफिस में अपनी रिपोर्ट प्रेषित करते रहें। 


     अपने इस आलेख में मैं विगत 73 वर्षीय गणतंत्र काल में भारत देश के रूप में हुई महत्वपूर्ण उपलब्धियों को नकार नहीं रहा हूँ, साथ ही एक महाशक्ति के रूप में भारत को प्रतिस्थापित करने के प्रधानमन्त्री श्री Narendra Modi ji के भागीरथी प्रयासों को भी स्वीकार कर केवल भारतीय शासन व्यवस्था के छिद्रों की ओर ही इशारा कर रहा हूँ। 


    आज भी भारत की शासन व्यवस्था ब्रिटिश अभिवृत्ति के अनुसार संचालित हैं, वही कार्यप्रणाली,  वही सामंती व्यवहार, समान्य नागरिक को गुलामों की तरह व्यवहार करना। 

एक संवेदनहीन शासन तंत्र - जिसमें लोक (समान्य जन) का कोई स्थान नहीं। देश की अधिकांश राजनैतिक दल किसी व्यक्ति अथवा परिवार द्वारा संचालित हैं, भारतीय जनता पार्टी को छोड़कर।


     आज एक समान्य नागरिक को त्वरित व सस्ते न्याय की आशा भारत में लगभग असम्भव है, एक सामान्य व्यक्ति जिला न्यायालयों में न्याय के लिए दशकों भटकता है, उच्च न्यायालय अथवा उच्चतम न्यायालय की चौखट पर न्याय के लिए जाना तो उसके सामर्थ के बाहर ही है,  इस पर भी देश के सभी न्यायालयों में 4.60 करोड़ से अधिक मामलों के लंबित हैं। 

आजतक क्या हम संविधान में प्रदत्त मौलिक अधिकार ‘कानून के समक्ष समानता’ ‘कानून का समान संरक्षण’ का अधिकार सुनिश्चित कर सकें हैं।


    भारत में वर्तमान प्रशासनिक व्यवस्था में अजीबो-गरीब स्थिति है और वह यह कि ब्रिटिश प्रशासनिक ढर्रे पर आधारित आईएएस आईपीएस या अन्य स्तर के अधिकारियों को सभी विषयों सभी विभागों का विशेषज्ञ माना जाता है और एक विशिष्ट विषय के योग्यता प्राप्त विशेषज्ञ इनसे आदेश व निर्देश प्राप्त करते हैं। यह नितांत हास्यास्पद स्थिति है।


   किसी भी देश की पुलिस, वहाँ की शांति व्यवस्था की गारन्टी होती है, किन्तु जब पुलिस व्यवस्था ही राजनैतिक हस्तक्षेप व भ्रष्टाचार की शिकार हो तो...। आज स्थिति यह ही है कि समान्य नागरिक अपनी समस्या के लिए सहज रूप से थाने - चौकी जाने से डरता है, उसे किसी ना किसी राजनैतिक प्रभाव का सहारा ढूंढना पड़ता है या रिश्वत देनी पड़ती है।


   चुनाव संसदीय लोकतांत्रिक व्यवस्था का आधार होती हैं, किन्तु भारत में चुनाव व्यवस्था पैसे की अनिवार्यता व प्रचुरता, सभी प्रकार के प्रलोभनों को अनुमति, जातिवादी साम्प्रदायिक उन्माद को मंजूरी, बाहुबल की प्रधानता से ग्रस्त है। हम आज तक जनप्रतिनिधियों की न्यूनतम शिक्षा भी अनिवार्य ना कर सकें, जो कानून बनाते हैं वह अशिक्षित हो सकते हैं और जो कानून का अनुपालन करायेंगे, वह श्रेष्ठतम शिक्षित होंगे। हैं ना कमाल। जेल में बंद नागरिक वोट नहिं दे सकता किन्तु जेल में बंद अपराधी चुनाव लड़ सकता है ।


   हम सिटिजन चार्टर व्यवस्था आज तक लागू ना कर सकें। हमने देश में हिन्दू कोड बिल लागू कर दिया, किन्तु मुस्लिम कोड बिल नहीं लागू कर सकें। अल्पसंख्यक अधिकारों के नाम पर मुसलामानों को विशेष अधिकार मिलें है, हिन्दुओं को नहीं। देश में समान नागरिक संहिता आज तक लागू नहीं है।

 

     देश में शिक्षा व्यवस्था का निजीकरण हो चुका है, अभिभावकों की आय का बड़ा हिस्सा शिक्षा में व्यय हो रहा है। शिक्षा रोजगारपरक हो, संस्कृति की प्रतिनिधि शिक्षा हो, English के स्थान पर क्षेत्रीय भाषाओं को, हिन्दी को समान मिले, अभी इसकी प्रतीक्षा है। 


     स्वस्थ नागरिक किसी भी राष्ट्र की समृद्धि का आधार है और भारत की स्वास्थ्य व्यवस्था का पूर्णतः निजीकरण हो चुका है। समान्य नागरिक सरकारी अस्पतालों में जाने से बचता है, सरकारी अस्पताल लूट और गरीब की असमय मौत के अड्डे हैं।


      इस पर आरक्षण व्यवस्था हमारी व्यवस्था का एक शक्तिशाली दानव है, जिसे भारत के दीन-हीन जनों को समृद्ध करने को व्यवहार में लाया गया, केवल 10 वर्षों के लिए।

और आज इतने वर्ष बाद यह व्यवस्था में योग्यता को रोंद कर अयोग्यता को वरीयता को देने का माध्यम बन गया है। भारत के प्रसिद्ध अधिवक्ता श्री नानी पालकीवाला ने कहा कि 'देश की स्वतंत्रता के बाद हमने काम के अवसर पैदा नहीं किए अपितु अवसरवादी पैदा किए।' 

आज कोई भी राजनैतिक दल आरक्षण व्यवस्था में सुधार या समाप्ति पर विचार का साहस नहीं जुटा पर रहा। 

और भी ऐसे अनेक नाजुक विचारणीय बिंदु है, तो क्या हम स्वयं को 26 जनवरी 1950 को स्वीकृत संविधान के अनुरूप लोकतांत्रिक गणराज्य के रूप में अपने को प्रमाणित कर सके हैं ।

लेखक~अशोक चौधरी अध्यक्ष - आहूति, (यह लेखक के निजी विचार है,जो प्रकाशित करने हेतु उनके द्वारा प्रेषित किए गए है)

एक टिप्पणी भेजें

0टिप्पणियाँ
एक टिप्पणी भेजें (0)