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आप पत्रकार हैं या पत्रकार बनना चाहते हैं, तो जरूर पढ़ें... ज्ञान की यह बात!

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अलीगढ़ मीडिया डॉट कॉम, नॉलेज डेस्क। आज कोई किताबी बात नहीं। कोई ज्ञान नहीं। जो सीखा है, जो अनुभव किया है, वही बात होगी। बात अंदर की होगी, इसलिए खरी-खरी होगी। आज हम अपने अंदर झांकेंगे। स्वमूल्यांकन करेंगे। पत्रकारिता का वह पक्ष दिखाने का प्रयास है, जिसे भुक्तभोगी ही जानता है। जो किसी किताब में नहीं है, हां, हर पत्रकार के सीने में दफन है। 


पत्रकारिता 

1.मिशन (विशेष कार्य)

-आजादी की लड़ाई को मिशन के रूप में लिया और सफल रहे।

-जब हम किसी कार्य को मिशन के रूप में लेते हैं तो सफलता मिलती ही है।

तभी तो अकबर इलाहाबादी ने लिखा-

"खींचो न कमानों को न तलवार निकालो

जब तोप मुकाबिल हो, अखबार निकालो!"


2.संघर्ष

- आजादी के बाद भ्रष्टाचार, गरीबी, आतंकवाद, लिंगभेद, अन्याय, सांप्रदायिकता के खिलाफ संघर्ष होगा, ऐसी सोच थी।

- इनके खिलाफ संघर्ष आज भी चल रहा है। यह अंतहीन सिलसिला है। चलता ही रहेगा संघर्ष...


3.सच 

-अखबारों ने सच का सामना किया। सच लिखने पर प्रताड़ना मिली। हत्याएं हुई। आज भी हो रही हैं।

- एक दौऱ था जब जनता में साख इतनी बना ली कि अखबार में छपी खबर को ही सत्य माना जाने लगा। 

3.सामाजिक जिम्मेदारी

-समाज है तो हम सब हैं। इसलिए समाज में सब कुशल मंगल रहे, यह चिन्ता भी की जा रही है। इसके चलते अखबार अब मैगजीन भी बन गए हैं।

- अखबार उपदेशक और समाज सुधारक बन गए हैं। दुनियाभर को बता रहे हैं कि लोग क्या खाएं, क्या न खाएं। कहां घूमने जाएं, कहां न जाएं। कहां पढ़ें और कहां नहीं। 

-कमाल तो यह है कि गर्ल फ्रेंड को पटाने की तरीके भी सुझाए जा रहे हैं।


अखबार का जमाना

जब सिर्फ अखबार थे, पत्रकार सशक्त थे। कम वेतन में ही काम चल रहा था। अखबार के मालिकान पत्रकारों के पास बैठते थे। घर के हालचाल पूछते थे। पीठ पर हाथ फेरते थे। पत्रकार फूलकर कुप्पा हो जाते थे और दिन रात लगे रहते थे। पत्रकारों के लिए घर तो होटल की तरह था। सिर्फ सोना और खाना है। गिनती के पत्रकार थे, इसलिए सबकी नजरों में रहते थे। मालिकान पूरी चिन्ता करते थे। इसका उदाहरण मैं स्वयं हूं। अमर उजाला ने मुझे एमबीए कराया। बहन की शादी के लिए ब्याजमुक्त ऋण दिया।


ताकत

किसी थानेदार के खिलाफ दो खबरें लिख दीं तो थाना छिन जाता था। सड़क में गड्ढे दिखा दिए तो अगले दिन मरम्मत शुरू हो जाती थी। किसी मोहल्ले में जलापूर्ति नहीं हो रही है, खबर छप गई तो इंजीनियर साहब की क्लास लग जाती थी। मशहूर शायर राहत इंदौरी ने लिखा है..

एक अखबार हूं, औकात ही क्या मेरी, 

मगर शहर में आग लगाने के लिए काफी हूं..

दुनिया में इससे अधिक ताकत किसी के पास नहीं है। आज भी नहीं है।


ऐसा क्यों

क्योंकि तब सच्चे पत्रकार थे। कुछ मिशनरी भावना थी। अखबार व्यसाय नहीं था। सारा समाज मानता था कि पत्रकार है तो सबसे अच्छा व्यक्ति होगा। दुखी लोग पुलिस के पास बाद में, पहले पत्रकार के पास जाते थे।


इसलिए बनते थे पत्रकार

पत्रकार को समाज में बड़ी इज्जत मिलती है। हर कोई नमस्ते करता है। जिलाधिकरी और पुलिस अधीक्षक हाथ मिलाते हैं। रुआब रहता है। पत्रकारिता की यह चकाचौंध देखकर गैर पत्रकार ‘पागल’ हो जाते हैं और पत्रकार बनने निकल पड़ते हैं। फिर कोई कितना ही समझाए, कुछ समझ नहीं आता है। एक ही धुन- पत्रकार बनूंगा जरूर चाहे जान चली जइयो।


क्या है पत्रकारिता

पत्रकारिता एक नशा है। पत्रकारिता त्याग है। पत्रकारिता बलिदान है। पत्रकारिता कंटकाकीर्ण मार्ग है और उस पर नंगे पांव चलने की कला है। इक आग का दरिया है और डूब के जाना है। कबीर दास जी ने कहा है-

कबिरा खड़ा बजार में लिए लुकाठी हाथ

जो घर फूंके आपनो चले हमारे साथ..

तो घर फूंककर तमाशा देखना भी है पत्रकारिता। अगर सुयोग्य पत्नी मिल गई, तो पत्रकारिता चैन से चलती रहेगी, नहीं तो लट्ठमलट्ठा और रोजाना सुनने को मिलेगा- मैं मायके चली जाऊंगी तुम देखते रहियो।


बदलाव-1 चैनल शुरू करके बंद होना

प्रिंट के बाद आया इलेक्ट्रॉनिक का जमाना। टीवी पत्रकार होने लगे। टीवी के पर्दे पर आने वाले पत्रकार रातोंरात स्टार बन गए। चैनलों की भरमार हो गई। शुरुआत में जो टीवी पत्रकार बन गए, उन्होंने एक मुकाम हासिल कर लिया। फिर शुरू हुई समाचार चैनल शुरू करने की होड़। धूमधड़ाक के साथ चैनल शुरू किए और कुछ समय बाद बंद हो गए, क्योंकि उद्देश्य कुछ और ही था। अगर मैं कहूं कि पत्रकारिता की आड़ में अपना उल्लू सीधा करना था, तो गलत नहीं है। उल्लू सीधा नहीं हुआ तो चैनल बंद और हो गए सैकड़ों पत्रकार बेरोजगार। कुछ चैनल और अखबार इसलिए शुरू हुए कि मीडिया के नाम पर लाला लोग बोरे भरकर नोट लाएंगे। वे भूल गए कि यहां नोट मुट्ठीभर आते हैं और बाल्टी भर जाते हैं। कमाल ये भी है कि हर साल मीडिया कंपनी लाभ दिखाती हैं, लेकिन कर्मचारियों को देने की बात आती है तो घाटा बताते हैं। अगर घाटा है तो 15 रुपये की लागत वाला अखबार चार रुपये में क्यों बेच रहे हैं?


बदलाव-2 बिकने लगी आईडी

जिसे एक बार पत्रकारिता और राजनीति करने का चस्का लग गया, वह छूटता नहीं है। इन्हें खत्म करने का कोई टीका भी नहीं बना है। सो चैनल की आईडी लेने की होड़ शुरू हो गई। फिर चैनल की आईडी दूल्हे की तरह बिकने लगी। खुलेआम बोली लगने लगी।


बदलाव-3 पीत पत्रकारिता

जो चैनल की आईडी खरीदकर लाएगा, सैलरी मिलेगी नहीं, जीविकोपार्जन का कोई अन्य साधन है नहीं, तो वह क्या करेगा। जाहिर है कि वह ‘ग्राहक’ तलाशेगा। फिर सौदेबाजी करेगा। सौदा नहीं पटा तो ये ले खबर...। बड़े बैनर को छोड़ दें तो, जिलों में यही सब हो रहा है। 24 साल रिपोर्टिंग के अनुभव के बाद यह कह रहा हूं। बात सच्ची है, इसलिए कड़वी है।


बदलाव-4 पोर्टल 

अब पोर्टल का जमाना है। टीवी से भी तेज होता है पोर्टल। पोर्टल आया तो अखबार बंद होने लगे। अखबारों का प्रसार कम होने लगा। अखबारों की रीडरशिप घट गई। आज का युवा अखबार नहीं पढ़ता, मोबाइल में इधर-उधर से आए लिंक खोलता है। ऐप्प पर खबरें देखता है। यूवी (यूनिक व्यू) और पीवी (पेज व्यू) लाने की होड़ है। सो खबरों की भरमार है। अधकचरी खबरें हैं। सनसनी वाले शीर्षक हैं, भले ही अंदर माल मसाला कुछ न हो।


बदलाव-5 सोशल मीडिया

सोशल मीडिया ने पत्रकारिता को पूरी तरह बदल दिया है। अब गली-मोहल्ले की खबरें आपकी मुट्ठी में हैं। मौके के वीडियो आपको तत्काल मिल रहे हैं। चस्का इतना है कि व्यक्ति नदी में डूब रहा है और उसे बचाने के स्थान पर वीडियो बनाया जा रहा है। फिर ये वीडियो वायरल हो रहे हैं। पिछले दिनों मैनपुरी में महिला को दबंग लाठियों से पीट रहे थे और बड़ी संख्या में लोग तमाशा देख रहे थे। इत्तिफाक से वहां मौजूद पत्रकार साहब वीडियो बना रहे थे। मतलब यह है कि पत्रकार को फील्ड में ज्यादा जाने की जरूरत नहीं है। सोशल मीडिया से खबरें मिल रही हैं।


बदलाव-6 सबसे बड़ा खतरा

सोशल मीडिया से पत्रकारिता की विश्वसनीयता पर खतरा पैदा हो गया है। अमिताभ बच्चन को कई बार मार चुका है सोशल मीडिया। ट्रेनों के एक्सीडेंट अक्सर कराता रहता है सोशल मीडिया। गाय काटने की सूचनाएं प्रसारित करता रहता है सोशल मीडिया। लोग भी बिना कुछ सोचे सूचनाएं अग्रसारित करते रहते हैं। अधिकांशतः गलत सूचनाएं होती हैं। सोशल मीडिया ने खुद पर काबू नहीं किया तो इसकी स्थिति भस्मासुर जैसी हो सकती है। पत्रकार साथियों को सोशल मीडिया पर अति निर्भरता से बचना चाहिए। ब्रेकिंग न्यूज को अग्रसारित करने से पहले जांच जरूर लें।


बदलाव-7, काम का बोझ

एक समय था जब पत्रकार को केवल खबरों से मतलब होता था। सिर्फ खबर लिखता था। उसे कंपोज कोई और करता था। प्रूफ पढ़ने का काम कोई और करता था। पेज कोई और लगाता था। अब तो पत्रकार ही सारे काम करता है। इसके बाद भी वेतन वहीं का वहीं है। नए दौर की पत्रकारिता में पत्रकार केवल खबरें नहीं लिखता है। वह विज्ञापन भी एकत्रित कर रहा है। बड़े अखबारों में कुछ खास अवसरों पर यह काम होता है, लेकिन छोटे अखबारों और चैनलों में हर माह होता है। विज्ञापन नहीं तो वेतन भी नहीं मिलता है। पत्रकारिता के ऐसे विकास ने पत्रकार की सारी अकड़ निकाल दी है। 


बदलाव-8 पत्रकार की रेड़

नए जमाने में पत्रकार और पत्रकारिता की रेड़ हो रही है। पत्रकारों के सामने छंटनी की समस्या है। उच्चस्तर पर नौकरिया बंद हैं। पत्रकार ठेके पर रखे जा रहे हैं। पत्रकार के स्थान पर अधिशासी (एग्जीक्यूटिव) बना दिया गया है। सबके परिचयपत्र बदल दिए गए हैं। मरता क्या नहीं करता। जिनके पास आय का अन्य कोई साधन नहीं है, वे तो अपनी नौकरी बचाने के लिए समझौते करेंगे ही। पत्रकारिता को भाड़ में झोंका जा चुका है। यह काम वही कर रहे हैं जिन पर पत्रकारों का हित संरक्षित और सुरक्षित रखने का दायित्व है।


बदलाव-9 संपादक

एक समय था जब संपादक ही सर्वेसर्वा हुआ करता था। क्या छपेगा, क्या नहीं, यह निर्णय सिर्फ संपादक का हुआ करता था। मालिक तक की हिम्मत नहीं होती थी। अब तो मालिक और विपणन (मार्केटिंग) विभाग के लोग तय करने लगे हैं कि ये खबर दे दो और ये खबर रोक दो। संपादक को मैनेजर बना कर रख दिया है। संपादक बनना है तो मैनेजमेंट भी आना चाहिए। 


बदलाव-10 छवि


पहले पत्रकार खबरों के जरिए तो व्यवस्था में सुधार और वंचित को हक दिलाता था। इसके अलावा उसकी बात और अनुभव का भी महत्व होता था। प्रशासनिक अधिकारी काफी हद कर कई मसलों को हल कराने के लिए पत्रकारों का सहारा लेते थे। जो भी नया अधिकारी आता था पत्रकारों से शिष्टाचार भेंट करता था और सहयोग मांगता था। कई मसले ऐसे होते थे जिन्हें सुलझाने के लिए अधिकारी पत्रकारों की विश्वसनीयता के सहारे सुलझाते थे। एक समय था जब पत्रकार किसी पुलिस या प्रशासनिक अधिकारी को फोन पर किसी काम की कहे और न हो, ऐसा संभव नहीं था। अब क्या हाल है, हम सब जानते हैं। सबको लगता है कि सिफारिश कर रहा है, तो जरूर लिफाफा ले लिया होगा। पत्रकार और अधिकारियों दोनों के बीच परस्पर विश्वसनीयता की भावना कम है। पत्रकार भी अपना काम सिर्फ कोटा पूरा करना यानि खबरों की गिनती पूरी करना समझता है, अधिकारी भी उसे 'भोंपू' समझता है। इसका कारण है ज्यादातर अधिकारियों को सीधे अखबार के मालिकान एंटरटेन करते हैं। इसलिए अब अधिकारी पत्रकार को हल्के में लेता है। मैं बीमार पड़ा तो डॉक्टर के पास गया। डॉक्टर ने पूछा क्या करते हो, मैंने कहा कि पत्रकार हूं। डॉक्टर ने कहा कि ड्रिंकिंग बंद कर दो। ये छवि है हम पत्रकारों की।


सुझाव और सलाह

मित्रो, अपने 26 साल की पत्रकारिता के अनुभव के आधार पर सुझाव और सलाह है कि इस पेशे पर पूरी तरह आश्रित न रहें। आय का अन्य कोई साधन जरूर विकसित करें। नोटबंदी के बाद स्थित और खराब है। पत्रकार को नहीं पता कि कल वह नौकरी पर रहेगा या नहीं। जब मैं अमर उजाला में नौकरी मांगने गया था, तब अनिल गुप्ता जी ने मुझे यह सुझाव दिया था, लेकिन पत्रकारिता के भूत ने बात नहीं सुनने दी। अब याद आती है बात। मैं भी नए पत्रकारों को यह सुझाव देता हूं, लेकिन मेरी बात भी कोई नहीं सुनता है।


ये हैं रास्ते

दरअसल ज्यादातर पत्रकारिता का कोर्स करने वाले युवा अपना भविष्य रिपोर्टर, सब एडिटर के तौर पर ही देखते हैं, लेकिन अब ऐसा नहीं है। बदलते दौर में इस कोर्स के जरिए आपके लिए कई दरवाजे खुलते हैं, बशर्ते आपके साथ शिक्षण संस्थान से छलावा नहीं किया हो।


आज के दौर में सबसे महत्वपूर्ण विषय है ऑडियो विजुअल प्रोडक्शन (Audio visual production) इस विषय के जरिए आप वीडियो एडिटिंग सीखते हैं, कैमरे की बारीकियां सीखते हैं साथ ही वीओ (Voice over) का महत्व ऊभी समझते हैं। अगर बारीकी में जाएंगे तो इस विषय के अंतर्गत आपको लाइटिंग सेंस भी सिखाया जाता है। इस विषय को पढ़ने के बाद आप इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में जाएंगे। वहां आपको रिपोर्टर, प्रोड्यूसर, कैमरामैन और वीडियो एडिटर की नौकरी मिलेगी। 


1-रिपोर्टर और प्रोड्यूसर रहते हुए आप स्क्रिप्ट राइटिंग पर अपने आपको मजबूत करिए। नौकरी के साथ ही फ्रीलांस स्क्रिप्ट लिखिए या आगे चल कर आप कोई धारावाहिक या फिल्म भी लिख सकते हैं। किसी प्रोडक्शन हाउस के साथ भी जुड़ सकते हैं।

2- आप चैनल में कैमरामैन हैं तो दिल्ली जैसे महानगरों में शॉर्ट फिल्म, एड फिल्म या डॉक्यूमेंट्री फ्रीलांस शूट कर सकते हैं। इसके बदले अच्छा खासा पैसा मिलता है।

3- वीडियो एडिटर के लिए सबसे ज्यादा अवसर होते हैं। आप चैनल में रहते हुए फ्रीलांस वीडियो एडिट कर सकते हैं। सबसे ज्यादा वीडियो एडिटर की डिमांड रहती है। इसके बाद आप अपना खुद का प्रोडक्शन हाउस भी खोल सकते हैं। दिल्ली में कई नामी चैनलों को छोड़ कर वीडियो एडिटर्स ने ऐसा किया है। 


और अन्त में

इतने झंझावातों के बीच भी अनेक पत्रकार अपने कार्य को सरअंजाम दे रहे हैं। समाज को बहुत कुछ दे रहे हैं। राजनेताओं के भ्रष्टाचार की पोल खोल रहे हैं। संसार का दुख दूर करने का प्रयास कर रहे हैं। उन्हें मैं शत-शत प्रणाम करता हूं।  ऐसे ही पत्रकारों के लिए किसी ने लिखा है-

"हम नई चेतना की धारा

हम अंधियारे में उजियारा

हम उस बयार के झोंके हैं

जो हर ले जग का दुख सारा।

ऐसी बदलाव की आशा है। हमारे जैसे बूढ़े लोग नहीं कर पाए हैं, लेकिन आप युवा पत्रकारों से आशा है।"

( सोशल मीडिया पर वायरल...आलेख)

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